मुशरर्फ के जूता पड़ने पर एक कविता या जो भी आप समझे दिल मे आई हैं पेश हैं -
काबिल-ए-इनाम थे ये जिसके , आज वही इनाम, अवाम से पाया हैं,
समझे थे पहले अपने ही शागिर्द आतंकियो का तोहफा, सोच कर ही पेशानी पर पसीना आया, पर जेसे पड़ा सर पर, खुल गयी आंखे, अरे ये तो अवाम का प्यार भरा तोहफा हैं, समझ कर सर हुजूर ने झुकाया हैं, खड़े पर ही पड़े, ओर जूते ही पड़े सही, पर कुछ तो अवाम की मंशा का एहतराम पाया हैं, शुक्र मना ए मुशरर्फ, ऊपर वाले ओर अवाम का, ओर निकल ले पतली गली से, वरना अभी तो वार्निग मे प्रेम से, ग्रेनेड की जगह केवल जूता ही आया,
काबिल-ए-इनाम थे ये जिसके , आज वही इनाम, अवाम से पाया हैं,
समझे थे पहले अपने ही शागिर्द आतंकियो का तोहफा, सोच कर ही पेशानी पर पसीना आया, पर जेसे पड़ा सर पर, खुल गयी आंखे, अरे ये तो अवाम का प्यार भरा तोहफा हैं, समझ कर सर हुजूर ने झुकाया हैं, खड़े पर ही पड़े, ओर जूते ही पड़े सही, पर कुछ तो अवाम की मंशा का एहतराम पाया हैं, शुक्र मना ए मुशरर्फ, ऊपर वाले ओर अवाम का, ओर निकल ले पतली गली से, वरना अभी तो वार्निग मे प्रेम से, ग्रेनेड की जगह केवल जूता ही आया,
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