19 दिसंबर 2013

विश्व गुरु भारत आज से नही सदियों से .....

घटना उन दिनों की है जब भारत पर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था, और आचार्य श्री चाणक्य यहाँ के महामंत्री थे, और चन्द्रगुप्त के गुरु भी थे उन्हीं के बदौलत चन्द्रगुप्त ने भारत की सत्ता हासिल की थी. चाणक्य अपनी योग्यता और कर्तव्यपालन के लिए देश विदेश मे प्रसिद्ध थे, उन दिनों एक चीनी यात्री भारत आया, यहाँ घूमता फिरता जब वह पाटलीपुत्र पहुंचा तो, उसकी इच्छा चाणक्य से मिलने की हुई उनसे मिले बिना उसे अपनी भारत यात्रा अधूरी महसूस हुई. पाटलिपुत्र उन दिनों मौर्य वंश की राजधानी थी. वहीं चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी रहते थे लेकिन उनके रहने का पता उस यात्री को नहीं था लिहाजा पाटलिपुत्र मे सुबह घूमता-फिरता वह गंगा किनारे पहुँचा. यहाँ उसने एक वृद्ध को देखा जो स्नान करके अब अपनी धोती धो रहा था. वह साँवले रंग का साधारण व्यक्ति लग रहा था, लेकिन उसके चहरे पर गंभीरता थी, उसके लौटने की प्रतीक्षा मे यात्री एक तरफ खड़ा हो गया वृद्ध ने धोती धो कर अपने घड़े मे पनी भरा और वहाँ से चल दिया. जैसे ही यह यात्री के नजदीक पहुंचा यात्री ने आगे बढ़कर भारतीय शैली मे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और बोला, “महाशय मैं चीन का निवासी हूँ भारत मे काफी घूमा हूँ, यहाँ के महामंत्री आचार्य चाणक्य के दर्शन
करना चाहता हूँ, क्या आप मुझे उनसे मिलने  का पता बता पाएंगे?”वृद्ध ने यात्री का प्रणाम स्वीकार किया और आशीर्वाद दिया. फिर उस पर एक नज़र डालते हुये बोला, “अतिथि की सहायता करके मुझे प्रसन्नता होगी आप कृपया मेरे साथ चले.” फिर आगे-आगे वह वृद्ध और पीछे-पीछे वह
यात्री चल दिये. वह रास्ता नगर की ओर न जा कर जंगल की ओर जा रहा था.यात्री को आशंका हुई की वह वृद्ध उसे किसी गलत स्थान पर तो नहीं ले जा रहा है. फिर भी उस वृद्ध की नाराजगी के डर से कुछ कह नहीं पाया. वृद्ध के चहरे पर गंभीरता और तेज़ था, चीनी यात्री उसके सामने खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. उसे इस बात की भली भांति जानकारी थी की, भारत मे
अतिथियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है, और सम्पूर्ण भारत मे चाणक्य और सम्राट चन्द्र गुप्त का इतना दबदबा था, की कोई अपराध करने की हिम्मत नहीं कर सकता था, इसलिए वह
अपनी सुरक्षा की प्रति निश्चिंत था. वह यही सोच रहा था की चाणक्य के निवास स्थान मे पहुँचने के लिए ये छोटा मार्ग होगा. वृद्ध लंबे- लंबे डग भरते हुये काफी तेजी से चल रहा था, चीनी यात्री को उसके साथ चलने मे काफी दिक्कत हो रही थी. नतीजन वह पिछड़ने लगा. वृद्ध को उस यात्री की परेशानी समझ गयी, वह धीरे-धीरे चलने लगा. अब चीनी यात्री आराम से उसके साथ चलने लगा. रास्ता भर वे खामोसी से आगे बढ़ते रहे थोड़ी देर बाद वृद्ध एक आश्रम से निकट पहुंचा जहां चारों ओर शांति थी तरह-तरह के फूल पत्तियों से आश्रम घिरा हुआ था. वृद्ध वहाँ पहुंच कर रुका और यात्री को वहीं थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर आश्रम मे चला गया. यात्री सोचने लगा की वह वृद्ध शायद इसी आश्रम मे रहता होगा, और अब पानी का घड़ा और भीगे वस्त्र रख कर कहीं आगे चलेगा.

कुछ क्षण बाद यात्री ने सुना, “महामंत्री चाणक्य अपने अतिथि का स्वागत करते है. पधारिए महाशय ” यात्री ने नज़रे उठाई और देखता रह गया वही वृद्ध आश्रम के द्वार पर खड़ा उसका स्वागत कर रहा था. उसके मुंह से आश्चर्य से निकाल पड़ा “आप?” “हाँ महाशय” वृद्ध बोला “मैं ही महामंत्री चाणक्य हूँ, और यही मेरा निवास स्थान है. आप निश्चिंत होकर आश्रम मे पधारे.”
यात्री ने आश्रम मे प्रवेश किया लेकिन उसके मन में यही आशंका बनी रही कि, कहीं उसे मूर्ख तो नही बनाया जा रहा है. वह इस बात पर यकीन ही नहीं कर पा रहा था, कि एक महामंत्री इतनी सादगी का जीवन व्यतीत करता है. नदी पर अकेले ही पैदल स्नान के लिए जाना. वहाँ से स्वयं ही अपने वस्त्र धोना, घड़ा भर कर लाना और बस्ती से दूर आश्रम मे रहना, यह सब चाणक्य जैसे विश्वप्रसिद्ध व्यक्ति कि ही दिनचर्या है.

उस ने आश्रम मे इधर उधर देखा, साधारण किस्म का सामान था, एक कोने मे उपलों का ढेर लगा हुआ था. वस्त्र सुखाने के लिए बांस टंगा हुआ था. दूसरी तरफ मसाला पीसने के लिए सील बट्टा रखा हुआ था. कहीं कोई राजसी ठाट-बाट नहीं था. चाणक्य ने यात्री को अपनी कुटियाँ मे ले जाकर आदर सहित आसान पर बैठाया, और स्वयं उसके सामने दूसरे आसान पर बैठ गए.
यात्री के चेहरे पर बिखरे हुए भाव समझते हुये चाणक्य बोले, “महाशय, शायद आप विश्वास नहीं कर पा रहे है कि, इस विशाल राज्य का महामंत्री मैं ही हूँ तथा यह आश्रम ही महामंत्री का मूल निवास स्थान है. विश्वास कीजिये ये दोनों ही बातें सच है. शायद आप भूल रहे है कि आप भारत मे है जहां कर्तव्यपालन को महत्व दिया जा रहा है, ऊपरी आडंबर को नहीं, यदि आपको राजशी ठाट-बाट देखना है तो आप सम्राट के निवास स्थान पर पधारे, राज्य का स्वामी और उसका प्रतीक सम्राट होता है, महामंत्री नहीं”. चाणक्य कि बाते सुन कर चीनी यात्री को खुद पर बहुत लज्जा आयी, कि उसने व्यर्थ ही चाणक्य और उनके निवास स्थान के बारे मे शंका कि. इत्तेफाक से उसे समय वहाँ सम्राट चन्द्रगुप्त अपने कुछ कर्मचारियों के साथ आ गए. उन्होने अपने गुरु के पैर छूये और कहा, “गुरुदेव राजकार्य के संबंध मे आप से कुछ सलाह लेनी थी इसलिए उपस्थित हुआ हूँ. इस पर चाणक्य ने आशीर्वाद देते हुये कहा, “उस संबंध मे हम फिर कभी बात कर लेंगे अभी तो तुम
हमारे अतिथि से मिलो, यह चीनी यात्री हैं. इन्हे तुम अपने राजमहल ले जाओ. इनका भली-भांति स्वागत करो और फिर संध्या को भोजन के बाद इन्हे मेरे पास ले आना, तब इनसे बातें करेंगे”.
सम्राट चन्द्रगुप्त आचार्य को प्रणाम करके यात्री को अपने साथ ले कर लौट गए. संध्या को चाणक्य किसी राजकीय विषय पर चिंतन करते हुये कुछ लिखने मे व्यस्त थे. सामने ही दीपक जल रहा था. चीनी यात्री ने चाणक्यको प्रणाम किया, और एक ओर बिछे आसान पर बैठ गया.
चाणक्य ने अपनी लेखन सामग्री एक ओर रख दी, और दीपक बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया.इस के बाद चीनी यात्री को संबोधित करते हुये बोले, “महाशय, हमारे देश मे आप काफी घूमे-फिरे
है. कैसा लगा आप को यह देश?” चीनी यात्री ने नम्रता से बोला, “आचार्य, मैं इस देश के वातावरण और निवासियों से बहुत प्रभावित हुआ हूँ. लेकिन यहाँ पर मैंने ऐसी अनेक विचित्रताएं भी देखीं हैं जो मेरी समझ से परे है”. "कौन सी विचित्रताएं, मित्र?” चाणक्य ने स्नेह से पूछा.
“उदाहरण के लिए सादगी की ही बात कर ली जा सकती है. इतने बड़े राज्य के महामन्त्री का जीवन इतनी सादगी भरा होगा, इस की तो कल्पना भी हम विदेशी नहीं कर सकते,” कह कर चीनी यात्री ने अपनी बात आगे बढ़ाई, “अभी अभी एक और विचित्रता मैंने देखी है आचार्य, आज्ञा हो तो कहूँ?” “अवश्य कहो मित्र, आपका संकेत कौन सी विचित्रता से की ओर है?” “अभी अभी मैं जब आया तो आप एक दीपक की रोशनी मे काम कर रहे थे. मेरे आने के बाद उस दीपक को बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया. मुझे तो दोनों दीपक एक समान लगे रहे है. फिर एक को बुझा कर दूसरे को जलाने का रहस्य मुझे समझ नहीं आया?” आचार्य चाणक्य मंदमंद मुस्कुरा कर बोले इसमे ना तो कोई रहस्य है और ना विचित्रता. इन 2 दीपको मे से एक राजकोष का तेल है और दूसरे मे मेरे अपने परिश्रम से खरीदा गया तेल. जब आप यहाँ आए थे तो मैं राजकीय कार्य कर रहा था इसलिए उस समय राजकोष के तेल वाला दीपक जला रहा था. इस समय मैं आपसे व्यक्तिगत बाते कर रहा हूँ इसलिए राजकोष के तेल वाला दीपक जलना उचित और न्यायसंगत नहीं है. लिहाज मैंने वो वाला दीपक बुझा कर अपनी आमनी वाला दीपक जला दिया”. चाणक्य की बात सुन कर यात्री दंग रह गया और बोला, “धन्य हो आचार्य, भारत की प्रगति और उसके विश्वगुरु बनने का रहस्य अब मुझे समझ मे आ गया है. जब तक यहाँ के लोगो का चरित्र इतना ही उन्नत और महान बना रहेगा, इस देश की तरक्की को संसार की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी. इस देश की यात्रा करके और आप जैसे महात्मा से मिल कर मैं खुद को गौरवशाली महसूस कर रहा हूँ. यह इस देश का गोरवशाली इतिहास हैं,. जिसे पुस्तको में नही पढ़ाया जाता,

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