'पेड़ चौक इलाहाबाद के अभी गवाही देते हैं,
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू के पीते हैं।।'\
खुसरो बाग़, इलाहबाद में जहाँ चंद्रशेखर आजाद ने अपने खून से इंकलाब लिख दिया था। वो एक ऐसे वीर सेनानी थे, जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी कांपती थी। जिनके नाम से ब्रिटिश अंग्रेज अफसरों की पतलून गीली हो जाती थी, खुसरो बाग़ चौक स्थित नीम के पेड़ पर सैकड़ों लोगों को फांसी पर लटकाया गया था, जो आज भी आजादी की गवाही दे रहा है।
खुसरो बाग़, इलाहबाद में जहाँ चंद्रशेखर आजाद ने अपने खून से इंकलाब लिख दिया था। वो एक ऐसे वीर सेनानी थे, जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी कांपती थी। जिनके नाम से ब्रिटिश अंग्रेज अफसरों की पतलून गीली हो जाती थी, खुसरो बाग़ चौक स्थित नीम के पेड़ पर सैकड़ों लोगों को फांसी पर लटकाया गया था, जो आज भी आजादी की गवाही दे रहा है।
इतिहासकारों और स्वतंत्रता सेनानियों के अनुसार 1857 की क्रांति की चिंगारी 12 मई को इलाहाबाद और आसपास के क्षेत्रों में पहुंच गई थी। क्रांति की चिंगारी को हवा, प्रयाग के पंडों ने दी। जनता ने अपना नेतृत्वकर्ता मौलाना लियाकत अली को माना। उन्होंने एतिहासिक खुशरोबाग को आजाद इलाहाबाद का मुख्यालय बनाया।
इसकी सूचना मिलते ही अंग्रेजी हुकूमत हिल गई। अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों को घेरने की रणनीति बनानी शुरू कर दी। इसी बीच क्रांति का असली सूत्रपात छह जून 1857 को हुआ। तब कई अंग्रेज अफसर इलाहाबाद आ धमके। उन्होंने चौक स्थित नीम के पेड़ पर आठ सौ निरीह लोगों को फांसी पर लटका दिया। सात जून को कोतवाली पर हरा झंडा फहराया गया और 11 जून को कर्नल नील को यहां से रवाना किया गया।
इसके बाद 13 जून को झूंसी और 17 को खुशरोबाग में अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर लिया। इविवि के प्रो. योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि वो दौर ही कुछ और था, अंग्रेजों ने बड़ी बेरहमी से लोगों को मारा था। वहा इतनी लाशें गिरीं थीं कि धरती खून से लाल हो गई। दिल दहलाने वाले मंजर के बीच उन लाशों को बैलगाड़ी में लादकर नदी में फेंकवा दिया गया था। आज भी ये बाग़ आजदी के दीवानों की यादो को ढो रहा हें,रहा हें,........
इसकी सूचना मिलते ही अंग्रेजी हुकूमत हिल गई। अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों को घेरने की रणनीति बनानी शुरू कर दी। इसी बीच क्रांति का असली सूत्रपात छह जून 1857 को हुआ। तब कई अंग्रेज अफसर इलाहाबाद आ धमके। उन्होंने चौक स्थित नीम के पेड़ पर आठ सौ निरीह लोगों को फांसी पर लटका दिया। सात जून को कोतवाली पर हरा झंडा फहराया गया और 11 जून को कर्नल नील को यहां से रवाना किया गया।
इसके बाद 13 जून को झूंसी और 17 को खुशरोबाग में अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर लिया। इविवि के प्रो. योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि वो दौर ही कुछ और था, अंग्रेजों ने बड़ी बेरहमी से लोगों को मारा था। वहा इतनी लाशें गिरीं थीं कि धरती खून से लाल हो गई। दिल दहलाने वाले मंजर के बीच उन लाशों को बैलगाड़ी में लादकर नदी में फेंकवा दिया गया था। आज भी ये बाग़ आजदी के दीवानों की यादो को ढो रहा हें,रहा हें,........
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